लाल घास पर नीले घोड़े....स्मृतिशेष इरफान खान

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संभवतः 85-86 के आसपास एक टेली सीरियल आई थी."लाल घास पर नीले घोड़े" समानांतर सिनेमा से परिचय और इरफान से वास्ता होने के बाद इसके सिनेमाई इतिहास को बहुत दूर तक खंगाला था मैंनें और सीडी के उस दौर में मैं जब भी किसी नये शहर जाता, साथ हमेशा एक लिस्ट हुआ करती थी और लक्ष्य होता था पायरेटेड सीडीज के हर बाजार में लिस्ट में दर्ज फिल्मों की सीडी किसी हाल में भी हासिल करना। सब्जी बाजार, पटना में इस टेली सीरियल 'लाल घास पर नीले घोड़े' के साथ-साथ 'एक डाक्टर की मौत' और 'थोड़ा सा रूमानी हो जाये' की सीडी भी हाथ लग गई। उन दिनों मंडी हाउस भी एक पता हुआ करता था दूरदर्शन पर आये हुयें पुराने नाटकों की सीडी हासिल करने का।लाल घास पर नीले घोड़े, उदय प्रकाश द्वारा अनुवादित और मूलतः Mikhail Shatrov द्वारा लिखित एक रशियन नाटक पर आधारित था जिसमें इरफान नें क्रांतिकारी व्लादिमीर लेनिन का रोल निभाया था।इत्तेफाक से इरफान खान और व्लादिमीर लेनिन दोनों की ही मौत 53 साल में हुई। वो एक दौर था जब ओम पुरी, फारूक़ शेख, पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, दीप्ति नवल, स्वरूप संपत, शबाना आज़मी और नाना पाटेकर जैसे कलाकार तथा साथ-साथ, अर्थ, मंडी, दमन और थोड़ा सा रूमानी हो जाये जैसी समानांतर सिनेमा की फिल्में अपनी व्यवसायिक प्रासंगिकता खो चुकी या खोने को थी। अंकुर (नाना पाटेकर-निशा सिंह) और द्रोहकाल (आशीष विद्यार्थी) जैसी बेहतरीन फिल्में भी अखबारों में कहीं समीक्षा के किसी कोने में अपना वजूद तलाश रही थी वैसे में सलाम बांबें (1988) और एक डाक्टर की मौत (1990) सरीखी फिल्मों से फिल्मी दरवाजे पर हौले से दी गई एक दस्तक का नाम था......इरफान खान। समय के साथ कलात्मकता और मजबूत सामाजिक संदर्भ वाली फिल्मों को व्यवसायिक प्रासंगिकता अगर किसी ने दिया तो बस इरफान खान था फिर चाहे बात 'हासिल' जैसी फिल्म की हों जिसने छात्र राजनीति के सामाजिक-राजनीतिक संबध के महत्व को सामान्य तरीकों से आम आदमी को भी समझा दिया। मनोज वाजपेयी, आशुतोष राणा, विनय पाठक, संजय मिश्रा, नवाजुद्दीन सिद्दिकी और पंकज त्रिपाठी सरीखे कलाकार अगर आज घर-घर के नाम है उसके पीछे बस एक नाम है और रहेगा.... इरफान खान.... आलेख-चंदन यादव